सत्संग शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- सत और सगं । सत्त का अर्थ है – सत्य और संग का अर्थ है साथ अर्थात सत्य का साथ।और इस सृष्टि में एकमात्र सत्य तो सिर्फ परमपिता परमेश्वर ही है।
जब हम किसी के साथ उस परमेश्वर के नाम, रूप, गुण और लीला की चर्चा करते हैं तो वह सत्संग होता है। यह चर्चा हम बहुत लोगों के साथ भी कर सकते हैं और एक व्यक्ति के साथ भी कर सकते हैं ।यह चर्चा हम एक दूसरे के साथ आमने-सामने बैठकर भी कर सकते हैं और फोन पर भी कर सकते हैं।अध्यात्म में हम अगर आगे बढ़ना चाहते हैं तो उसके लिए पहला कदम सत्संग ही है।भगवद गीता में भी सत्संग की महिमा बताई गई है। भगवान श्री कृष्णा भी अर्जुन को बताते हैं कि अगर सत्य को जानना है तो वह हमें हमारे आध्यात्मिक गुरु या कोई प्रामाणिक पुरुष ही बता सकते हैं। भगवद गीता में श्रवण का भी बहुत महत्व बताया गया है। जब हम सत्संग में बार-बार कोई बात सुनते रहते हैं तो हमारे अवचेतन मन में जो हमारे पुराने संस्कार होते हैं और जो पुरानी मान्यताएं होती हैं ,वह बदलने लगती हैं और हमारा देखने का नजरिया भी बदलने लगता है। शास्त्रों में भी भक्ति के बारे में कहा गया है कि ” पहली भक्ति संतन करि संगा । “. हमारे जीवन में भक्ति तब आती है ,जब हमें भक्तों का संग मिलता है और भक्तों का संग सत्संग में ही मिल सकता है। रामायण में भी एक चौपाई में आता है कि ” बिन सत्संग विवेक ना होई।”
सत्संग से हम विवेकशील बनते हैं ।हमारे आध्यात्मिक गुरु हमारे जीवन का अंधकार खत्म करते हैं और अपने ज्ञान से जीवन को रोशनी से भर देते हैं ।सत्संग में हमें अपने आध्यात्मिक गुरु की पॉजिटिव ऊर्जा भी मिलती है ।जिससे ज्ञान के साथ-साथ शांति भी मिलती है। सत्संग में हमारे मन के संशय भी खत्म होते हैं। सत्संग से हमें सही और गलत का पता चलता है और हमारे विकार भी पता चलते हैं और उन्हें ठीक कैसे करना है, यह समझ भी सत्संग से ही आती है। इसलिए हमें हमेशा सत्संग से जुड़ने और समझने का प्रयास करते रहना चाहिए।
एक विद्यार्थी जब स्कूल जाता है तो उसे कक्षा कार्य के साथ-साथ गृह कार्य भी करना पड़ता है ।उसी तरह से सत्संग हमारा कक्षा कार्य है तो साधना हमारा गृह कार्य है। साधना हमारा व्यक्तिगत आध्यात्मिक अभ्यास है ,जिससे हम प्रभु के साथ अपना खोया हुआ संबंध वापस जोड़ने की कोशिश करते हैं। साधना हम बहुत तरीकों से कर सकते हैं जैसे :- नाम जप करना, भोग लगाना ,व्रत रखना, आरती करना ,शास्त्रों का अध्ययन करना व कीर्तन करना इत्यादि।
साधना का मुख्य उद्देश्य है मन को साधना। साधना शब्द मूल रूप से संस्कृत के साधन शब्द से आया है । भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि “सभी इंद्रियों में मन मैं हूं।” इसलिए मन को वश में करना आसान बात नहीं है। हमारा मन एक जंगली घोड़े की तरह है ।जो हमारे वश में न रहकर इधर-उधर भागता रहता है और जीवन के असली लक्ष्य यानी प्रभु की भक्ति की तरफ हमें बढ़ने नहीं देता ।मन बहुत चंचल होता है। मन का स्वभाव है कि वह हमें हमेशा नेगेटिव की ओर प्रेरित करता है ।मन वश में न होने के कारण हम बहुत सारा समय व्यर्थ की गतिविधियों में गवा देते हैं। साधना की विभिन्न गतिविधियों को जीवन में उतारने से मन को नियंत्रण में लाया जा सकता है ।इसके लिए बहुत लंबे समय तक अभ्यास करना पड़ता है।
जब एक बार साधना की विभिन्न गतिविधियों को हम जीवन में उतार लेते हैं तो मन शांत होने लगता है, इंद्रियां भी वश में आने लगती हैं और तब हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति भी कर सकते हैं।
सेवा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – साहा +ऐवा। सेवा को हम बहुत ही सीमित समझते हैं परंतु सेवा का अर्थ बहुत ही व्यापक है ।सेवा आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण स्तंभ है ।सेवा आत्मा का धर्म है ।सेवा सिर्फ वह नहीं होती कि किसी पंडित को खाना खिलाना, किसी मंदिर में लंगर लगा देना या किसी संस्था में पैसे देना ।यह भी सेवा के कुछ रूप है, परंतु सिर्फ सेवा यही होती है ऐसा नहीं है ।
सेवा हम तन, मन और धन किसी भी तरह से कर सकते हैं। सबसे पहली सेवा जो हम गृहस्थ में रहकर कर सकते हैं। वह है, अपने परिवार के सदस्यों, बच्चों और बुजुर्गों की सेवा। जैसा कि कहा भी गया है कि Charity begins at home. जब हम अपने घर- परिवार को सेवा समझ कर संभालते हैं तो उनसे उम्मीदें भी कम होती हैं और उम्मीदें जब कम होती हैं तो लड़ाई झगड़ा भी कम होता हैं।
जब हम निष्काम भाव से, निस्वार्थ होकर अपने घर- परिवार की, समाज की, राष्ट्र की अथवा भगवान की सेवा का प्रयास करते हैं तो हमारा अहंकार गलित होता है ।सेवा हमें विनम्र बनाती है ।सेवा करने से हृदय में करुणा बढ़ती है।
हमें सेवा करते हुए खुद को कर्ता नहीं मानना चाहिए। बल्कि हमेशा यह याद रखना चाहिए कि भगवान हमें दूसरों की सेवा का अवसर दे रहे हैं, हम तो केवल माध्यम है। यही विनम्रता हमें भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ाएगी।
गोलोक एक्सप्रेस में हमें यह सिखाया जाता है कि सेवा छोटी या बड़ी नहीं होती, सेवा सिर्फ प्यारी होती है ।रामचरितमानस में भी गिलहरी का प्रसंग आता है कि जब समुद्र पर पुल बन रहा होता है तो एक छोटी सी गिलहरी भी अपने मुंह में थोड़ी सी रेत भरकर पुल बनाने में सहयोग करती है और भगवान श्री राम गिलहरी के प्रयासों को देखकर बहुत खुश होते हैं और उसकी सेवा स्वीकार करते हैं।
हमें भी कई बार यह गलतफहमी होती है कि हम अपने समाज या राष्ट्र के लिए क्या कर सकते हैं। हम कई बार यह बहाना भी लगाते हैं कि हम अकेले कुछ नहीं कर सकते। परंतु सच तो यह है कि One man can make a difference. गोलोक एक्सप्रेस की टैगलाइन Transform the world by Transforming yourself.( खुद को बदलकर ही संसार को बदला जा सकता है) यहां सटीक बैठती है।
गोलोक एक्सप्रेस में हमें मानसिक सेवा के बारे में भी बताया जाता है ।अगर हमें लगता है कि हम ना आर्थिक रूप से और ना ही शारीरिक रूप से कोई सेवा कर सकते हैं तो तब हमें मानसिक सेवा करनी चाहिए ।अर्थात किसी के कल्याण के लिए भगवान से सच्चे दिल से प्रार्थना करना ,दुआ देना आदि। हम किसी भी असहाय व्यक्ति को या पूरे समाज के लिए भी अपने किए हुए नाम जाप का दान कर सकते हैं। इस तरह से सच्चे मन से की हुई किसी भी तरह की सेवा से हम प्रभु की कृपा का पात्र बनते हैं ।
एक व्यक्ति का व्यवहार ही उसकी पहचान होती है। एक सदाचारी व्यक्ति ईमानदार ,सरल, सत्य परायण ,दयालु ,विनम्र, संयमी और प्रेम आदि गुणों से परिपूर्ण होता है ।परंतु ऐसा तभी होगा जब कोई व्यक्ति सत्संग, साधना और सेवा करता होगा। जब हमारे आध्यात्मिक जीवन के यह तीन स्तंभ मजबूत होंगे तभी हमारा चौथा स्तंभ यानी सदाचार भी मजबूत हो पाएगा।
सत्संग का विवेक और बुद्धिमत्ता, साधना की ऊर्जा और बल और सेवा की विनम्रता जब हमारे व्यवहार में दिखेगी तो सदाचार अपने आप बढ़ेगा।
परन्तु कुछ लोग आध्यात्मिकता को लेकर भ्रमित रहते हैं ।क्योंकि वे बिना सत्संग, साधना और सेवा किए ही सब कुछ समझना चाहते हैं, यह कुछ ऐसा हुआ कि एक बच्चा यह सोचे कि ना मैं स्कूल जाऊं और ना ही पढ़ाई में मेहनत करूं, पर मुझे सारी विद्या भी प्राप्त हो जाए। परंतु यह तो असंभव बात है।
यदि साधक निरंतर सत्संग, साधना और सेवा का यथा संभव अभ्यास करें तो समय के साथ उसमें सकारात्मक बदलाव आते हैं और वह आध्यात्म की उच्च अवस्था को भी प्राप्त कर लेता है।
निष्कर्ष यह है कि हमें एक साथ इन चारों स्तंभों पर काम करना चाहिए यदि अध्यात्म के यह चार स्तंभ मजबूत होंगे तभी हम भक्ति मार्ग पर प्रगति कर पाएंगे और समाज के लिए भी लाभकारी होंगे।